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AKHLAQUE AHMAD
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बदल गई इस गांव की किस्मत, जरी के बर्तनों के शिल्पों से पहचानी जाती है पहचान
आखरी अपडेट:
मेराज रिसर्चर का फतहा गांव में पहले से ही आटा और जरी का सेंटर बन गया है। यहां सैकड़ों युवा और महिलाएं इस कला को सीखकर आत्मनिर्भर हो गईं। आपके उत्पाद मौलिक रूप से लोकप्रिय हैं। इन लोगों की खास शिकायत ये है कि मेहनत का दम नहीं.
अन्य: जिले के सिमरिया खंड का फतहा गांव आज अपने हंगेरियन और आर्टिस्ट की वजह से देश-विदेश में पहचान बना रहा है। गांव की इस साहसी तस्वीरों के केंद्र में हैं गांव के ही रहने वाले मेराज शोधकर्ता, जिज्ञासु ने महानगर की नौकरी के लिए पारंपरिक सामान और जरी के काम को नई दिशा दी। उनके काम के दुर्भाग्य को पूरे गांव में एक नई पहचान मिली। उनकी लगन में न सिर्फ उन्हें सफलता मिली बल्कि गांव के सैकड़ों युवाओं और महिलाओं को भी आत्मनिर्भर बनने का रास्ता दिखाया गया।
फ़्रांसीसी रेसिपी
मेराज के वकील बताते हैं कि उन्होंने साल 1999 में दिल्ली से अपनी यात्रा की शुरुआत की थी। वहां उन्होंने एक निजी कंपनी में पेट्री का काम शुरू किया और बाद में उन्हें नौकरी भी मिल गई। अच्छी नौकरी और बेहतरीन व्यक्तित्व के बावजूद उनके मन में हमेशा अपने गांव लौटने पर कुछ बड़ा करने का सपना था। इसी सपने ने उन्हें दिल्ली की नौकरी ठीक करने के लिए प्रेरित किया।
आटा और जरी का केंद्र बना फतहा गांव
गांव वापस आकर उन्होंने अपने हंगर को एक छोटे से पत्थर के रूप में स्थापित किया और बच्चों को प्रशिक्षित करना शुरू किया। धीरे-धीरे स्थिति कमजोर हो गई और 100 से अधिक बच्चों ने इस कला में मजबूती हासिल कर ली। आज फतहा गांव की चक्की और जरी के काम का तेजी से उदय केंद्र बन गया है।
कहा जाता है पकौड़ी कलाकारों का गांव
फतहा के कारीगरी, दुपट्टा, सूट और ब्लाउज पर बेहद साधारण कारीगरी करते हैं। उनके निर्मित उत्पाद झारखंड सहित कई देशों के राज्यों में भेजे जाते हैं। यहां की कलाकृतियां इतनी लोकप्रिय हैं कि यहां से मसाले लेकर डुके लोग खरीदकर ले जाते हैं। मेराज की पहल के साथ आज फतहा गांव को पक्के कलाकारों का गांव जाने लगा है।
मेहनत के अनुसार नहीं दम
गांव के कलाकारी का वैज्ञानिक सलाहकार यह काम बेहद मेहनत वाला है। कई-कई घंटे एक ही कपड़े पर काम करना है. लेकिन मेहनत और प्रतिभा के बावजूद कलाकारों को पारिश्रमिक नहीं मिलता। एक ऑफर को बनाने में 5 से 6 दिन लगते हैं, लेकिन इसके बदले में सिर्फ 3000 से 4000 रुपये ही मिलते हैं। वहीं दुपट्टे की रेसिपी के 1500 रुपये मिलते हैं, जिसकी मेहनत का सामान काफी कम है.
फतहा गांव की यह कहानी साबित करती है कि अगर जुनून, मेहनत और सही दिशा मिले, तो पारंपरिक स्टार्टअप भी वैश्विक पहचान बन सकती है। मेराज शोधकर्ता और उनके सहयोगी कलाकार आज ग्रामीण भारत की अनंत मूर्ति का जीवंत उदाहरण हैं।
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